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बुद्ध अकादमी टीकमगढ़ (म.प्र.) (पटवारी, संविदा शिक्षक, वनरक्षक, पुलिस, जेल प्रेहरी तथा सभी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी)-सुबोध खरे

created Mar 29th 2017, 04:09 by GuruKhare


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जब मैं बच्‍चा था तो घंटों पिताजी को ठोका-पीटा करते देखता रहता था। वे इंजीनियर थे और वीकेंड पर हम चीजों के हिस्‍से-पुर्जे अलग करके उन्‍हें फिर जोड़ने का मजा लेते। यह हमारा अलग तरह का मनोरंजन था। उस समय यह बात समझ नहीं आई लेकिन, इससे मैंने ऐसी बहुत-सी चीजें सीखी, जो आंत्रप्रेन्‍योर बनने के लिए जरूरी होती हैं।
    लगातार प्रयास करते रहना, समस्‍या के रचनात्‍मक समाधान खोजना और प्रयोग करने की प्रवृति। इसलिए पुराने को छोड़कर नए को अपनाने की मकर संक्रांति की भावना में मैं एक ऐसे प्रश्‍न का उत्‍तर देना चाहता हूं, जो हाल ही की मेरी भारत यात्रा में मेरे सामने कई बार आया। आंत्रप्रेन्‍योर होने के लिए क्‍या आवश्‍यक है, सिर्फ पुराने किस्‍म का कोई आंत्रप्रेन्‍योर नहीं, बल्कि एक सफल आहंत्रप्रेन्‍योर। शुरू के बीस साल मैं नाकाम ही होता रहा। पहली को-फाउंडेड कंपनी दीवालिया हो गई थी। यही वजह है कि आप में वह बात होनी चाहिए जिसे मैं सफल होने का 'चैपियन्‍स माइंडसेट' कहता हूं। बेशक, ज्‍यादातर लोग जब चैपियन के बारे में सोचते हैं तो लगातार छक्‍े लगाते सचिन जैसी किसी शख्सियत के बारे में सोचते हैं। लेकिन, चैंपियन होने का दूसरा पहलू भी होता है: कड़ी मेहनत, कठिनाइयां, तकलीफ विपरीत स्थिति को मात देने और सबकुछ जमीन पर उतारने की काबिलियत, फिर चाहे परिस्थितियां कितनी ही कठिन क्‍यों हो जाएं। वही असली चैपियन है।
     

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